देशव्यापी स्तर पर हुई छापे की कार्रवाई ने इस बात को उजागर कर दिया है कि देश में चुनाव अभियान किस हद तक (संभवत: अवैध) धन पर निर्भर करते हैं। चुनाव आयोग की विशेष टीम ने अब तक देश भर से जो नकदी, शराब और मादक पदार्थ जब्त किए हैं उनकी कीमत 1,800 करोड़ रुपये तक हो सकती है। यह न केवल अपने आप में एक बड़ी समस्या है बल्कि इसमें दिनोदिन इजाफा भी होता जा रहा है। अभी मतदान शुरू भी नहीं हुआ है और इसके बावजूद ऐसा प्रतीत होता है मानो 2014 के आम चुनाव के दौरान जो 300 करोड़ रुपये की नकदी जब्त की गई थी, वह आंकड़ा पीछे छूट चुका है। इस चुनाव में अब तक 473 करोड़ रुपये की नकदी जब्त की जा चुकी है और 410 करोड़ रुपये मूल्य का सोना पकड़ा जा चुका है। अकेले तमिलनाडु से 220 करोड़ रुपये मूल्य का सोना जब्त किया गया है। जब्त नकदी के मामले में भी तमिलनाडु 154 करोड़ रुपये के साथ शीर्ष पर है। इस बीच, पंजाब और गुजरात मादक पदार्थों की जब्ती के मामले में शीर्ष पर हैं। अकेले गुजरात से ही 500 करोड़ रुपये मूल्य का मादक पदार्थ जब्त किया गया है। चुनाव आयोग ने जो राशि जब्त की है, उसके अलावा भी आयकर विभाग समेत विभिन्न सरकारी एजेंसियों ने भी काफी मात्रा में नकदी जब्त की है। हाल के दिनों में 60 से ज्यादा छापे मारे गए। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज के अनुमान के मुताबिक इन चुनावों में कुल मिलाकर 50,000 करोड़ रुपये से अधिक की राशि खर्च हो सकती है। यह राशि 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में खर्च हुई राशि से अधिक है।
ध्यान रहे कि निर्वाचन आयोग ने चुनाव में हर प्रत्याशी के व्यय की सीमा तय कर रखी है लेकिन उसका हमेशा उल्लंघन होता है। चुनाव आयोग ने प्रत्याशियों के लिए 50 से 70 लाख रुपये के व्यय की सीमा तय की है। परंतु यह निरर्थक है क्योंकि राजनीतिक दलों के व्यय की सीमा तय नहीं की गई है। तमिलनाडु में द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम समेत कुछ विपक्षी दलों ने यह दावा भी किया है कि छापे राजनीति से प्रेरित हैं। कुछ मामलों को अपवाद मानते हुए भी यह ऐसी व्यवस्थागत समस्या बन चुकी है जिसे हल करना आवश्यक है। गत वर्ष प्रकाशित-कॉस्ट्स ऑफ डेमोक्रेसी: पॉलिटिकल फाइनैंस इन इंडिया, में देवेश कपूर और मिलन वैष्णव समेत राजनीति विज्ञानियों के एक समूह ने देश में चुनावी फंडिंग की समस्या की जांच की और उन्हें जो नतीजे मिले वे परेशान करने वाले थे।
चुनाव खर्च का बोझ वहन कर सकने वाले प्रत्याशियों की बढ़ती तादाद का अर्थ यह है कि लोकसभा के स्वरूप में ऐसा बदलाव आ रहा है कि वहां अमीरों की तादाद बढ़ रही है। उदाहरण के लिए 2014 की लोकसभा में 82 फीसदी उम्मीदवारों के पास एक करोड़ रुपये से अधिक संपत्ति थी। राजनीति विज्ञानियों ने यह भी पाया कि इस प्रकार के व्यय को वोट के बदले नोट के रूप में देखना सरलीकरण होगा। बल्कि यह तोहफे देने और मूलभूत चुनावी मशीनरी पर व्यय करने जैसा है। जरूरत इस बात की है कि व्यय को नियंत्रित किया जाए और पार्टी स्तर पर नकदी जुटाने को सीमित किया जाए तथा पार्टियों द्वारा अपने प्रत्याशियों को की जाने वाली फंडिंग को अधिक पारदर्शी बनाया जाए। इससे प्रत्याशियों की खुद की फंडिंग पर निर्भरता कम होगी। मौजूदा सरकार के बेनामी चुनावी बॉन्ड इसमें मददगार नहीं हैं। प्रोफेसर कपूर और डॉ. वैष्णव का सुझाव है कि व्यापक सहमति की आवश्यकता है जहां धन जुटाने वाले सभी पक्ष शमिल हों और पैसा डिजिटल तरीके से जुटाया जाए। राजनीतिक दलों का अंकेक्षण तृतीय पक्ष करे। बदले में चुनावों के वास्तविक खर्च के हिसाब से थोड़ी ढील दी जाए और चुनावों में सरकारी फंडिंग की व्यवस्था लागू की जाए।
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